ड्राइवर साहब” से “अबे ओ ड्राइवर” तक: क्या हम संवेदनहीन हो चुके हैं?-पढ़िए पूरी खबर

‼️एक ड्राइवर की पीड़ा‼️
_{रितेश श्रीवास्तव-ऋतुराज}_
👉”ड्राइवर साहब” से “अबे ओ ड्राइवर” तक: क्या हम संवेदनहीन हो चुके हैं?
_👉कभी आपने गौर किया है कि कैसे वक्त के साथ शब्द बदलते हैं? कैसे आदर अंदाज़ में बदल जाता है और सम्मान सामान्य में। एक ऐसा ही शब्द है — “ड्राइवर साहब”।_
‼️👉एक समय था, जब गाड़ी के सामने बैठा वो व्यक्ति सिर्फ गाड़ी नहीं, जिम्मेदारी चला रहा होता था।* हर मोड़, हर ब्रेक, हर एक्सीलेरेशन में दर्जनों जिंदगियाँ उसकी सूझबूझ और सतर्कता पर टिकी होती थीं। इसलिए लोग उसे सम्मान से “ड्राइवर साहब” कह कर पुकारते थे।
बुज़ुर्ग कहते थे –
_”गाड़ी चलते समय ड्राइवर से बात मत करो।”_
ये एक चेतावनी नहीं, भरोसे का इज़हार था।
👉लोग चाय की दुकान पर रुककर ड्राइवर को अपने पैसे से चाय पिलाते थे, उसकी आँखें खुली रहें, वो सतर्क बना रहे – क्योंकि उसके हाथों में सिर्फ स्टेयरिंग नहीं, सबकी सुरक्षा होती थी।
👉पर आज क्या से क्या हो गया?
_‼️आज वही ड्राइवर अपने अधिकार और सम्मान के लिए तरस रहा है।_
अब कोई “ड्राइवर साहब” नहीं कहता,
_अब कहा जाता है – “अबे *ओ ड्राइवर, गाड़ी बढ़ा!”*_
कभी झुंझलाहट में थप्पड़, कभी गाली, कभी तिरस्कार भरी नज़रें…
_अधिकारी, यात्री, यहां तक कि समाज – सबने जैसे ये मान लिया हो कि ये वर्ग सिर्फ सेवा के लिए है, सम्मान के लिए नहीं।_
👉पर सोचिए, वो चालक जो दिन-रात सड़कों पर सफर करता है,अपने परिवार से दूर, केवल इसलिए कि आप अपने परिवार तक सुरक्षित पहुँच सकें, क्या वो एक सारथी नहीं है?
‼️कंडक्टर, जो पूरे रास्ते टिकट काटता है,भीड़ संभालता है, यात्री की भाषा, भाव और बहस से जूझता है, *क्या वो केवल पगार का हकदार है, सम्मान का नहीं?
‼️👉उनकी थकान भी असली है, उनका तनाव भी असली है, लेकिन अफ़सोस — उनकी तकलीफ़ किसी को दिखती नहीं। उन्हें अब “मानव” नहीं, एक “मशीन” समझा जाता है — जो गाड़ी चलाए, समय पर पहुँचे, शिकायत न करे, और गलती से भी सम्मान की अपेक्षा न रखे।_
हमें समझना होगा —
ड्राइवर सिर्फ गाड़ी नहीं चलाता
वो आपकी जिंदगी चला रह होता है।
‼️अब भी वक्त है — शब्दों में “साहब”* वापस लौटाने का।
संवेदनाओं को फिर से ज़िंदा करने का।
हर यात्री, हर अधिकारी, हर नागरिक को यह याद रखना होगा कि
सम्मान, पेशे से नहीं, पेशेवर से मिलता है।