शिक्षा, साहित्य और समाज सेवा की त्रिवेणी: संध्या सिंह
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शिक्षा, साहित्य और समाज सेवा की त्रिवेणी: संध्या सिंह
रितेश श्रीवास्तव-ऋतुराज
लखनऊ। शिक्षा, साहित्य, फिटनेस और समाज सेवा के क्षेत्र में बहुआयामी योगदान देने वाली संध्या सिंह एक प्रेरणास्रोत के रूप में उभर रही हैं। एम.बी.ए. (मानव संसाधन) में परास्नातक संध्या न केवल एक कुशल लेखिका हैं, बल्कि फिटनेस एवं न्यूट्रीशन विशेषज्ञ के रूप में भी अपनी पहचान बना चुकी हैं।
स्कूली शिक्षा में महत्वपूर्ण योगदान
संध्या सिंह Academia पब्लिशर के माध्यम से स्कूली पुस्तकों का लेखन कर रही हैं। उनकी किताबें शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थियों को सरल और प्रभावी सीख प्रदान कर रही हैं। इसके अलावा, वे सरकारी संस्थानों में प्रशासनिक कार्यों में भी दक्षता रखती हैं।
साहित्य और मंच संचालन में सक्रियता
संध्या सिंह की कविताएँ विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों में प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी रचनाएँ समाज और संस्कृति को एक नई दिशा देने का कार्य कर रही हैं। इसके अलावा, वे आकाशवाणी के युववाणी कार्यक्रम में माइक संचालन कर चुकी हैं, जिससे उनके संप्रेषण कौशल की झलक मिलती है।
सामाजिक सेवा में उल्लेखनीय कार्य
समाज सेवा के क्षेत्र में भी संध्या सिंह का महत्वपूर्ण योगदान है। वे विभिन्न सामाजिक अभियानों में सक्रिय भागीदारी निभा रही हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में अवधी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए कार्य कर रही हैं। उनकी इस पहल से लोकभाषा और संस्कृति को नया आयाम मिल रहा है।
शिक्षा, साहित्य और समाज सेवा को एक साथ समाहित करने वाली संध्या सिंह अपने बहुआयामी प्रयासों से समाज में जागरूकता और संस्कृति के संवर्धन में निरंतर योगदान दे रही हैं।
संध्या सिंह की प्रमुख रचना देती है संदेश
बचपन मुझे चिढ़ाता है
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फिर वो बचपन सामने आया
आकार उसने खूब चिढ़ाया।
बोला मेरे कान में आकर
तुम तो खुश थे कम्पट पाकर।
बैग नहीं वो बस्ता था
सब कुछ कितना सस्ता था।
खुश होकर कभी-कभी
एक रुपय्या मिलता था।
काला चूरन, गुड़ की पट्टी
कितना कुछ तो मिलता था।
सारे त्योहारों में तुमको
सबसे प्यारी होली थी।
टीवी मतलब शक्तिमान
रामायण और रंगोली थी।
गर्मी की दोपहर में जब
बर्फ बेचने आते थे।
गेहूं के बदले मिली बर्फ
तुम बड़े चाव से खाते थे।
बारिश में तुम नाव बनाते
और कभी तालाब नहाते।
कभी दौड़ पेड़ पर चढ़ जाते
खड़ी दुपहरी चुपके भग जाते।
सर्दी में जब दो स्वेटर थे
एक बाहर, एक घर का।
ऊन बची तो बना दिया
एक गरम टोपा सिर का।
चोर-सिपाही, लंगड़ी-टांग
खेलना कितना था आसान।
कंचे टायर गिल्ली-डंडा
रोज़ शाम का यही था काम।
उफ्फ ! ऐ बचपन
बार-बार यूं क्यूं मुझे चिढ़ाता है।
चाहूं वापस कितना भी तुझको
लौट के तू न आता है।
■ संध्या सिंह